नदी

 



ये बहती - ये नदी

यू उम्मीद में - यू कुछ मंद

बहती है एक आश्रय पर

रहती यू प्रवाह बन


मिल सके तो समंदर ही से मिले

क्या समंदर ही है ये मंजिल ?

यूँ तो बहती जब - तो है नीर

समन्दर से जा मिले क्यों बन खारा ?


फिर इस खारे से ही क्यों मंजिल

फिर इस सारे पर क्यों - मैं हूँ गुम

क्या यहीं है इसका अंत ?

क्या यही से ये प्रारंभ था ?


फिर एक भाप बन

सारे आकाश में समाए

फिर क्यों ये बरसे पानी बनकर ?

और फिर एक उम्मीद मंजिल की ये, 


समन्दर ही क्यों मंजिल कहलाए ?

क्यों ये आकाश नहीं ?

गर आकाश ही है तो

स्वयं नदी ही क्यों नहीं ?


-प्रोमिला देवी सुदर्शन हुईद्रोम 

२००२

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